दुःस्वप्न ये ज़िन्दगी
जिसमें भागता फिर रहा हर एक सख्श
नींद नदारद होती नम नयनो से
राजू को रीता से प्यार है
पर रीता तो रीझती है राधे से
राधे को रीता में रस नहीं
हर एक चीज़ चीज़ है
अगर बिक सकती है
बिकने की होड़ है
लोक वियोग एक ऐसे सामाजिक मुद्दे को प्रस्तुत करता है कि जो मनुष्य के अन्दर की संसार के प्रति वैराग्य की अनुभूतियों को उजागर करता है। इन अनुभूतियों में बहुत सारी कष्टप्रद हैं । मैंने जी जान लगा कर भी प्रायः हार का स्वाद चखा । जीवन की संसाररूपी प्रयोगशाला में हर रोज़ कुछ अजीब से प्रेक्षण करता रहता हूँ। विधाता है कि नही पता नही... अगर है तो बस एक ही प्रश्न है कि मेरी गति क्या होगी और नियति क्या होगी ....